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हैं शाख़ शाख़ परेशाँ तमाम घर मेरे | शाही शायरी
hain shaKH shaKH pareshan tamam ghar mere

ग़ज़ल

हैं शाख़ शाख़ परेशाँ तमाम घर मेरे

अहमद सग़ीर सिद्दीक़ी

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हैं शाख़ शाख़ परेशाँ तमाम घर मेरे
कटे पड़े हैं बड़ी दूर तक शजर मेरे

चराग़ इन पे जले थे बहुत हवा के ख़िलाफ़
बुझे बुझे हैं जभी आज बाम-ओ-दर मेरे

हज़ारों साल की तारीख़ लिक्खी जाएगी
ज़मीं के बत्न से उभरेंगे जब खंडर मेरे

ये देखना है कि अब हार मानता है कौन
उधर है वुसअत-ए-इम्काँ इधर हैं पर मेरे

मैं अपनी ज़ात की ताबीर की तलाश में था
तो मेरे ख़्वाब चले बन के हम-सफ़र मेरे

सुराग़-ए-मौसम-ए-गुल के अमीन की सूरत
खिले हुए हैं ख़िज़ाँ में भी ज़ख़्म-ए-सर मेरे