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हैं जो मुरव्वज मेहर-ओ-वफ़ा के सब सर-रिश्ते भूल गए | शाही शायरी
hain jo murawwaj mehr-o-wafa ke sab sar-rishte bhul gae

ग़ज़ल

हैं जो मुरव्वज मेहर-ओ-वफ़ा के सब सर-रिश्ते भूल गए

इंशा अल्लाह ख़ान

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हैं जो मुरव्वज मेहर-ओ-वफ़ा के सब सर-रिश्ते भूल गए
फिर गए तुम तो क़ौल-ओ-क़सम से अपने नविश्ते भूल गए

जब देखो तब लाठी ठेंगे खट खट करते फिरते हैं
उड़ते हैं कोई शैख़-जी साहब उन को फ़रिश्ते भूल गए

अहले-गहले फिरते हो साहब सैर-ए-चमन में और तुम्हें
अपने तड़पते ज़ख़्मी सब ख़ूँ में आग़ुशते भूल गए

क़ाज़ी-जियो के दोनों बेटे हम से कहेंगे है वो मसल
घर में फ़रिश्ते के ख़ारिशते सो ख़ारिशते भूल गए

नस्ल बड़ी आदम की 'इंशा' कौन किसी को पहचाने
बाइस-ए-कसरत हम दीगर के नाते-रिश्ते भूल गए