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हैं घर की मुहाफ़िज़ मिरी दहकी हुई आँखें | शाही शायरी
hain ghar ki muhafiz meri dahki hui aankhen

ग़ज़ल

हैं घर की मुहाफ़िज़ मिरी दहकी हुई आँखें

इम्तियाज़ साग़र

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हैं घर की मुहाफ़िज़ मिरी दहकी हुई आँखें
मैं ताक़ में रख आया हूँ जलती हुई आँखें

इक पल भी किसी मोड़ पे रुकने नहीं देतीं
काँटों की तरह जिस्म में चुभती हुई आँखें

रस्ते में क़दम फूँक के रखना मेरे प्यारो
हैं चारों तरफ़ शहर में बिखरी हुई आँखें

यूँ उस के बिछड़ जाने पे आँसू न बहाओ
मंज़र को तरस जाएँगी भीगी हुई आँखें

क़ातिल के सिवा कोई समझ ही नहीं सकता
क्या देखती हैं तश्त में रक्खी हुई आँखें

क्या जानिए किस ख़्वाब की ताबीर में गुम हैं
ज़ुल्फ़ों की घनी छाँव में उलझी हुई आँखें

'साग़र' शब-ए-तीरा में उजालों की अमीं हैं
नफ़रत के समुंदर में ये बहती हुई आँखें