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हैं देस-बिदेस एक गुज़र और बसर में | शाही शायरी
hain des-bides ek guzar aur basar mein

ग़ज़ल

हैं देस-बिदेस एक गुज़र और बसर में

आरज़ू लखनवी

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हैं देस-बिदेस एक गुज़र और बसर में
बे-आस को कब चैन मिला है किसी घर में

चुप मैं ने लगाई तो हुआ उस का भी चर्चा
जो भेद न खुलता हो वो खुल जाता है डर में

सूरज का घमंड और नहीं तारे के बराबर
ऐसी ही तो बातें हैं इस अंधेर-नगर में

वो टल नहीं सकती जो पहुँचने की घड़ी है
चलता रहे गलियों में कि बैठा रहे घर में

हूक उट्ठी इधर जी में उधर कूक उठी कोयल
पूछे कोई तो कौन इधर में न उधर में

ऐ 'आरज़ू' आँखों ही में कट जाते हैं दिन-रात
कोई भी घड़ी चैन की है आठ-पहर में