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हैं बज़्म-ए-गुल में बपा नौहा-ख़्वानियाँ क्या क्या | शाही शायरी
hain bazm-e-gul mein bapa nauha-KHwaniyan kya kya

ग़ज़ल

हैं बज़्म-ए-गुल में बपा नौहा-ख़्वानियाँ क्या क्या

ज़हीर काश्मीरी

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हैं बज़्म-ए-गुल में बपा नौहा-ख़्वानियाँ क्या क्या
बहार छोड़ गई है निशानियाँ क्या क्या

तमाम उम्र गुल-ओ-मुल के दरमियाँ गुज़री
तमाम उम्र रहीं सर-गिरानियाँ क्या क्या

वो शख़्स-ए-इत्र-बदन जब भी सामने आया
दिल-ओ-नज़र पे हुईं गुल-ओ-फ़शानियाँ क्या क्या

ख़बर न थी यही वज्ह-ए-सुकून-ए-जाँ होगी
निगाह-ए-यार से थीं बद-गुमानियाँ क्या क्या

टपक के आँख से तूफ़ाँ उठा दिए जिस ने
इस एक अश्क में थीं बे-करानियाँ क्या क्या

हुज़ूर-ए-यार से जब इज़्न-ए-गुफ़्तुगू न मिला
सुख़न-तराज़ हुईं बे-ज़बानियाँ क्या क्या

हर एक दर्द को दरमाँ बना दिया उस ने
जफ़ा के भेस में थीं मेहरबानियाँ क्या क्या

वो हुस्न आज भी हीला-गरी में यकता है
दिल-ए-ग़रीब सुनेगा कहानियाँ क्या क्या

उस इक जमाल-ए-गुरेज़ाँ की जुस्तुजू में 'ज़हीर'
ख़राब-ओ-ख़्वार हुई हैं जवानियाँ क्या क्या