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है वज्ह-ए-तमाशा-ए-जहाँ दिल-शिकनी भी | शाही शायरी
hai wajh-e-tamasha-e-jahan dil-shikani bhi

ग़ज़ल

है वज्ह-ए-तमाशा-ए-जहाँ दिल-शिकनी भी

मोहसिन भोपाली

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है वज्ह-ए-तमाशा-ए-जहाँ दिल-शिकनी भी
मंज़ूर है ऐ दोस्त! ये नेज़े की अनी भी

शादाब दरख़्तों के भी साए हैं गुरेज़ाँ
इक जुर्म हुई मेरी ग़रीब-उल-वतनी भी

पीते ही रहे गर्दिश-ए-अय्याम के हाथों
सहबा-ए-मलामत भी ग़म-ए-तअना-ज़नी भी

सोचा था कि उस बज़्म में ख़ामोश रहेंगे
मौज़ू-ए-सुख़न बन के रही कम-सुख़नी भी

ऐ सिलसिला-ए-निकहत-ए-गेसू के असीरो!
है इश्क़ में इक मरहला-ए-कोह-कनी भी

वीरान जज़ीरों की तरह ख़ुश्क हैं आँखें
बेकार है ऐ दर्द तिरी नाला-ज़नी भी

ऐ नाज़िश-ए-सद-रंग न कर उन से तग़ाफ़ुल
है ख़ाक-नशीनों से तिरी गुल-बदनी भी