EN اردو
है वज्ह-ए-सुकून-ए-दिल-ए-आशुफ़्ता-नवा भी | शाही शायरी
hai wajh-e-sukun-e-dil-e-ashufta-nawa bhi

ग़ज़ल

है वज्ह-ए-सुकून-ए-दिल-ए-आशुफ़्ता-नवा भी

हाफ़िज़ लुधियानवी

;

है वज्ह-ए-सुकून-ए-दिल-ए-आशुफ़्ता-नवा भी
वो आँख कि है फ़ित्ना-ए-सद-होश-रुबा भी

है कार-ए-जुनूँ अहल-ए-जुनूँ के लिए आसाँ
ये काम कभी अहल-ए-फ़रासत से हुआ भी

तस्कीन-दिल-ओ-जाँ है अगर वो रुख़-ए-ज़ेबा
उस क़ामत-ए-ज़ेबा में है इक हश्र छुपा भी

जो सामने आए तो मिरी सम्त न देखे
देता है शब-ए-हिज्र वही मुझ को सदा भी

उतरे जो वो सीने में तो इल्हाम की सूरत
ठहरे तो लरज़ने लगे शबनम की रिदा भी

उठ्ठे तो क़यामत भी क़दम चूम के गुज़रे
अल-क़िस्सा वो अंदाज़ है आफ़त भी बला भी

'हाफ़िज़' मिरे सीने में फ़रोज़ाँ है अभी तक
वो दर्द सिखाता है जो जीने की अदा भी