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है उस की ज़ुल्फ़ से नित पंजा-ए-अदू गुस्ताख़ | शाही शायरी
hai uski zulf se nit panja-e-adu gustaKH

ग़ज़ल

है उस की ज़ुल्फ़ से नित पंजा-ए-अदू गुस्ताख़

वली उज़लत

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है उस की ज़ुल्फ़ से नित पंजा-ए-अदू गुस्ताख़
मिरा ग़ुबार वो दामन से है कभू गुस्ताख़

धुआँ निकालूँ मैं हुक़्क़े का ख़ून-ए-जाम पियूँ
तिरे हैं लब से दोनों मेरे रू-ब-रू गुस्ताख़

पला है पानी से पर सर चढ़ा है पानी के
नदी के सात है कम-ज़र्फ़ी से कदू गुस्ताख़

सतावे है दिल-ए-ख़ूनीं को हर्फ़-ए-नासेह यूँ
कि जैसे ज़ख़्म से होवे है गुल की बू गुस्ताख़

हँसी से ग़ुंचा का दिल सुब्ह तोड़े है 'उज़लत'
तू डर जो तुझ से कोई होवे ख़ंदा-रू गुस्ताख़