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है मोल-भाव में बाज़ार में है साथ मिरे | शाही शायरी
hai mol-bhao mein bazar mein hai sath mere

ग़ज़ल

है मोल-भाव में बाज़ार में है साथ मिरे

ख़ालिद कर्रार

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है मोल-भाव में बाज़ार में है साथ मिरे
वो एक कार-ए-फ़ना-ज़ार में है साथ मिरे

सलीब-ए-जाँ से विसाल आसमाँ के साहिल तक
हर एक लज़्ज़त-ए-आज़ार में है साथ मिरे

कभी तो हीरो बनाता है और कभी जोकर
हर एक रंग के किरदार में है साथ मिरे

यही बहुत है मिरे जिस्म ओ जाँ का हिस्सा है
कहीं तो मौजा-ए-ख़ूँ-बार में है साथ मिरे

अजब गुमान है जैसे कि सरफ़राज़ हूँ मैं
अजीब फ़ित्ना-ए-दस्तार में है साथ मिरे

कभी मुझे भी ज़रा मोजज़ा-नुमा करता
जो अपनी ज़ात के असरार में है साथ मिरे

वो दस्तरस में है लेकिन नज़र से ग़ाएब है
हरीफ़-ए-जाँ कोई पैकार में है साथ मिरे

मैं इक निगाह को महसूस कर रहा हूँ मुदाम
कोई तो रेग-ए-फ़ना-ज़ार में है साथ मिरे

वो सारे ख़ेमे लगाता है फिर उखाड़ता है
सराब-ए-मंज़िल-ओ-आसार में है साथ मिरे

जो छोड़ देता है दश्त-ए-ज़वाल में तन्हा
वो रेल-पेल में बाज़ार में है साथ मिरे