है क्या ख़िज़ाँ में मुमकिन सहरा में बाग़ निकले
ज़ुल्मत को जो मिटाए ऐसा चराग़ निकले
शोर-ए-सफ़ीर-ए-बुलबुल से गूँजता था कल तक
क्यूँ आज मेरे घर में रोने को ज़ाग़ निकले
दाग़-ए-क़मर से आख़िर जब आश्ना हुआ मैं
जितने रक़ीब पाए उन में न दाग़ निकले
डरता था मैं न आए वक़्त-ए-फ़िराक़ मुझ पर
कुछ वस्ल से तिरे अब हौल-ए-दिमाग़ निकले
हो जुस्तुजू में जिस की है वो मज़ार कैसा
क्या अपनी क़ब्र का तुम लेने सुराग़ निकले
मैं थक चुका हूँ 'नाक़िद' तर्ग़ीब-ए-ज़िंदगी से
चाहूँ उफ़ुक़ से आख़िर रोज़-ए-फ़राग़ निकले
ग़ज़ल
है क्या ख़िज़ाँ में मुमकिन सहरा में बाग़ निकले
आदित्य पंत 'नाक़िद'