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है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब | शाही शायरी
hai KHamoshi zulm-charKH-e-dew-paikar ka jawab

ग़ज़ल

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब

अमीर मीनाई

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है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब
आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब

जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं
करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब

साथ ख़ंजर के चलेगी वक़्त-ए-ज़ब्ह अपनी ज़बान
जान देने वाले देते हैं बराबर का जवाब

सज्दा करता हूँ जो मैं ठोकर लगाता है वो बुत
पाँव उस का बढ़ के देता है मिरे सर का जवाब

अब्र के टुकड़े न उलझें मेरी मौज-ए-अश्क से
ख़ुश्क मग़्ज़ों से है मुश्किल मिस्रा-ए-तर का जवाब

वो खिंचा था मैं भी खिंच रहता तो बनती किस तरह
सर झुका देता था क़ातिल तेरे ख़ंजर का जवाब

जीते-जी मुमकिन नहीं उस शोख़ का ख़त देखना
ब'अद मेरे आएगा मेरे मुक़द्दर का जवाब

शैख़ कहता है बरहमन को बरहमन उस को सख़्त
काबा ओ बुत-ख़ाना में पत्थर है पत्थर का जवाब

रोज़ दिखलाता है गर्दूं कैसी कैसी सूरतें
बुत-तराशी में है ये काफ़िर भी आज़र का जवाब

हर जगह क़ब्र-ए-गदा तकिए में हर जा गोर-ए-शाह
एक घर इस शहर में है दूसरे घर का जवाब

जल्वा-गर है नूर-ए-हक़ होने से यकताई 'अमीर'
साया भी होता अगर होता पयम्बर का जवाब