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है ख़मोश आँसुओं में भी नशात-ए-कामरानी | शाही शायरी
hai KHamosh aansuon mein bhi nashat-e-kaamrani

ग़ज़ल

है ख़मोश आँसुओं में भी नशात-ए-कामरानी

अली जव्वाद ज़ैदी

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है ख़मोश आँसुओं में भी नशात-ए-कामरानी
कोई सुन रहा है शायद मिरी दुख भरी कहानी

यही थरथराते आँसू यही नीची नीची नज़रें
यही उन की भी निशानी यही अपनी भी निशानी

ये निज़ाम-ए-बज़्म-ए-साक़ी कहीं रह सकेगा बाक़ी
कि ख़ुशी तो चंद लम्हे ग़म ओ दर्द जावेदानी

हैं वजूद-ए-शय में पिन्हाँ अज़ल ओ अबद के रिश्ते
यहाँ कुछ नहीं दो रोज़ा कोई शय नहीं है फ़ानी

तिरी बात क्या है वाइज़ मिरा दिल वो है कि जिस ने
इसी मय-कदे में अक्सर मिरी बात भी न मानी

पय-ए-रफ़-ए-बद-गुमानी मैं वफ़ा बरत रहा था
मिरी पय-ब-पय वफ़ा से बढ़ी और बद-गुमानी

मिरा मय-कदा सलामत कि हर एक क़ैद उठा दी
न तो दैर की ग़ुलामी न हरम की पासबानी

करूँ उन से लाख शिकवे मगर उन से शिकवा करना
न तरीक़ा-ए-मोहब्बत न रिवायत-ए-जवानी