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है ख़ाक-बसर सबा मिरे बा'द | शाही शायरी
hai KHak-basar saba mere baad

ग़ज़ल

है ख़ाक-बसर सबा मिरे बा'द

पीर शेर मोहम्मद आजिज़

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है ख़ाक-बसर सबा मिरे बा'द
गुलशन की फिर हवा मिरे बा'द

थी जा-ए-विसाल मंज़िल-ए-गोर
हासिल हुआ मुद्दआ' मिरे बा'द

ऐ तप न जलाना उस्तुख़्वाँ को
मायूस न हो हुमा मिरे बा'द

क़ातिल ने बहाए लाश पर अश्क
था बस यही ख़ूँ-बहा मिरे बा'द

यूँ ख़ाक में मैं मिला कि उस ने
पाया न मिरा पता मिरे बा'द

की दाग़ ने ख़ाक से तराविश
गुल क़ब्र से ये खिला मिरे बा'द

औरों पे करोगे जब जफ़ाएँ
याद आएगी ये वफ़ा मिरे बा'द

गो मैं न रहा मगस की सूरत
शोहरा तो रहा मिरा मिरे बा'द

ऐ ग़म मिरी जान खा चुका तू
क्या होगी तेरी ग़िज़ा मिरे बा'द

बे-जुर्म किया जो क़त्ल मुझ को
जल्लाद ख़जिल हुआ मिरे बा'द

रूठा रहा यूँ तो उम्र भर वो
तुर्बत से गले लगा मिरे बा'द

बाक़ी न रहा जहाँ में 'आजिज़'
कुछ लुत्फ़ ज़बान का मिरे बा'द