है जिस में क़ुफ़्ल-ए-ख़ाना-ए-ख़ुम्मार तोड़िए
या'नी दर-ए-बहिश्त को यकबार तोड़िए
क्यूँ क़ैद-ए-ख़ुम में दुख़्तर-ए-रज़ ही पड़ी रहे
ये मोहर-ए-रेसमान-ए-सरोकार तोड़िए
शागिर्द अमीर-हम्ज़ा-ए-साहिब-क़िराँ के हैं
क्यूँकर भला न क़िलअ'-ए-अशरार तोड़िए
कीजे लक़ा-ए-बाख़तर-ए-बे-बक़ा को क़ैद
नजतक के सर पे गुर्ज़-ए-गराँ-बार तोड़िए
चोटी पकड़ के नर्गिस-ए-जादू की खींचिए
कल्ले को उस के मारिए ललकार तोड़िए
रुस्तम से छीन लीजिए देव-ए-सफ़ेद को
और इस की दह मरोड़ के तलवार तोड़िए
सद्द-ए-सिकंदरी भी जो चढ़ जाए ध्यान तो
वोहीं तुफ़ैल-ए-हैदर-ए-कर्रार तोड़िए
आ जावें हफ़्त-ख़्वान-ए-तिलिस्मात सामने
तो ख़ैर से उन्हें भी ब-तकरार तोड़िए
हिस्न-ए-ज़मुर्रदैन-ए-अदु कोह-ए-क़ाफ़ पर
होवे तो उस को भेज के अय्यार तोड़िए
ज़म्बील है अमर की दिल-ए-फ़िक्र-ख़ेज़ ये
इस को किसी तरह से न ज़िन्हार तोड़िए
है अज़्म-जज़्म ये कि ज़बरदस्ती आज तो
बंद-ए-क़बा है मौसम-ए-गुलज़ार तोड़िए
या छेड़ने को अब्र के इक झटका मार कर
शलवार-बंद बर्क़-ए-शरर-बार तोड़िए
जी चाहता है ले के बलाएँ तुम्हारी आज
पोरें इन उँगलियों को सब ऐ यार तोड़िए
'इंशा' दिखा के और भी इक जल्वा-ए-ग़ज़ल
बंद-ए-नक़ाब-ए-शाहिद-ए-असरार तोड़िए
ग़ज़ल
है जिस में क़ुफ़्ल-ए-ख़ाना-ए-ख़ुम्मार तोड़िए
इंशा अल्लाह ख़ान