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है इख़्तिलाफ़ ज़रूरी तुम्हें पता नहीं है | शाही शायरी
hai iKHtilaf zaruri tumhein pata nahin hai

ग़ज़ल

है इख़्तिलाफ़ ज़रूरी तुम्हें पता नहीं है

वक़ास अज़ीज़

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है इख़्तिलाफ़ ज़रूरी तुम्हें पता नहीं है
चराग़ कैसे जलेगा जहाँ हवा नहीं है

तुम्हारे हाथ छुड़ाने से रुक गया है सफ़र
ये धूप छाँव मुसाफ़िर का मसअला नहीं है

तुम्हारे जाने से बे-लुत्फ़ हो गई हर शय
कि ज़हर खा के भी देखा है ज़ाइक़ा नहीं है

मैं ढूँड लाया हूँ जब उस के जैसा दूजा शख़्स
सो अब वो कहने लगा मुझ सा तीसरा नहीं है

ज़माँ मकाँ में कहीं होगा ढूँड लूँगा उसे
मुझे बस इतना बता दो कि वो ख़ुदा नहीं है