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है इक ग़म-ए-जहाँ तो ग़म-ए-यार कम नहीं | शाही शायरी
hai ek gham-e-jahan to gham-e-yar kam nahin

ग़ज़ल

है इक ग़म-ए-जहाँ तो ग़म-ए-यार कम नहीं

हक़ीर जहानी

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है इक ग़म-ए-जहाँ तो ग़म-ए-यार कम नहीं
इस मुख़्तसर सी उम्र में आज़ार कम नहीं

पहले की तरह अब वो कहाँ निकहत-ए-चमन
गरचे कि रंग-ए-ग़ुंचा-ए-गुलज़ार कम नहीं

अन्क़ा है अब ख़ुलूस कि नापैद है वफ़ा
दुनिया में गो कि हुस्न के बाज़ार कम नहीं

क़ीमत तो अपनी जिंस-ए-वफ़ा की लगा के देख
हम भी दिखाएँ ज़र्फ़-ए-ख़रीदार कम नहीं

इक बार दर्द-ए-दिल का मसीहा तो बन के देख
हम इब्तिला-ए-इश्क़ के बीमार कम नहीं

बेहतर है बज़्म-ए-यार में ख़ामोश ही रहें
कहने को राज़-ए-जाँ दर-ओ-दीवार कम नहीं

अब क्यूँ नहीं है तेरा वो तर्ज़-ए-बयाँ 'हक़ीर'
हालाँकि तेरी सर्वत-ए-अफ़्कार कम नहीं