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है गुज़र अर्श-ए-बरीं तक नाला-ए-शब-गीर का | शाही शायरी
hai guzar arsh-e-barin tak nala-e-shab-gir ka

ग़ज़ल

है गुज़र अर्श-ए-बरीं तक नाला-ए-शब-गीर का

शोला करारवी

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है गुज़र अर्श-ए-बरीं तक नाला-ए-शब-गीर का
देखिए तो सिलसिला टूटी हुई ज़ंजीर का

बार-ए-सर से मुझ को ऐ क़ातिल सुबुक-दोशी हुई
है मिरी गर्दन पे ये एहसाँ तिरी शमशीर का

देख कर उन को मुझे सकता है वो ख़ामोश हैं
सामना है आज इक तस्वीर से तस्वीर का

साथ में उस के निकल आया है क्या मेरा जिगर
देखते हैं किस लिए पैकाँ वो अपने तीर का

की बुतों के दर पे मैं ने जुब्बा-साई उम्र-भर
पर मिटा अब तक न वो लिक्खा हुआ तक़दीर का

नक़्श से बहज़ाद भी हैराँ है मिस्ल-ए-आइना
ऐ परी-पैकर वो आलम है तिरी तस्वीर का

ग़ैर के पहलू में ऐ 'शो'ला' नहीं उन को क़रार
है असर इतना हमारी आह-ए-पुर-तासीर का