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है ग़नीमत ये फ़रेब-ए-शब-ए-व'अदा ऐ दिल | शाही शायरी
hai ghanimat ye fareb-e-shab-e-wada ai dil

ग़ज़ल

है ग़नीमत ये फ़रेब-ए-शब-ए-व'अदा ऐ दिल

रज़ा हमदानी

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है ग़नीमत ये फ़रेब-ए-शब-ए-व'अदा ऐ दिल
क्या कोई देगा तुझे इस से ज़ियादा ऐ दिल

मुद्दतों जान छिड़कते रहे जिस लम्स पे वो
ओढ़ कर आ गया ख़ुश्बू का लबादा ऐ दिल

सोच ज़ंजीर-ब-पा फ़िक्र है पाबंद-ए-रसन
क्या यही सुब्ह-ए-तमन्ना का है जादा ऐ दिल

अब भी रौशन किए बैठा है उम्मीदों के चराग़
कितना मासूम है तू कितना है सादा ऐ दिल

ख़ूँ में लुथड़े हुए लाशे हैं नुक़ूश-ए-कफ़-ए-पा
और कर मंज़िल-ए-जानाँ का इरादा ऐ दिल

ख़ुद-फ़रेबी का फ़ुसूँ तुझ पे है कारी वर्ना
कम नहीं है शब-ए-ग़म से शब-ए-व'अदा ऐ दिल