है फ़सीलें उठा रहा मुझ में
जाने ये कौन आ रहा मुझ में
'जौन' मुझ को जिला-वतन कर के
वो मिरे बिन भला रहा मुझ में
मुझ से उस को रही तलाश-ए-उमीद
सो बहुत दिन छुपा रहा मुझ में
था क़यामत सुकूत का आशोब
हश्र सा इक बपा रहा मुझ में
पस-ए-पर्दा कोई न था फिर भी
एक पर्दा खिंचा रहा मुझ में
मुझ में आ के गिरा था इक ज़ख़्मी
जाने कब तक पड़ा रहा मुझ में
इतना ख़ाली था अंदरूँ मेरा
कुछ दिनों तो ख़ुदा रहा मुझ में
ग़ज़ल
है फ़सीलें उठा रहा मुझ में
जौन एलिया