EN اردو
है दुकान-ए-शौक़ भरी हुई कोई मेहरबाँ हो तो ले के आ | शाही शायरी
hai dukan-e-shauq bhari hui koi mehrban ho to le ke aa

ग़ज़ल

है दुकान-ए-शौक़ भरी हुई कोई मेहरबाँ हो तो ले के आ

सज्जाद बाक़र रिज़वी

;

है दुकान-ए-शौक़ भरी हुई कोई मेहरबाँ हो तो ले के आ
ज़र दाग़-ए-दिल का सवाल है कोई नक़्द-ए-जाँ हो तो ले के आ

रही ये फ़ज़ा तो जिएँगे क्या कोई अब बिना-ए-दिगर उठा
कोई हो ज़मीं तो निकाल उसे कोई आसमाँ हो तो ले के आ

जो हो ज़ौक़-ए-दर्द का ये समाँ तो उछाल दे कोई आसमाँ
तिरे दाग़-ए-दिल मह-ओ-मेहर में कहीं कहकशाँ हो तो ले के आ

ये है शाम मौसम-ए-दर्द की ये है सुब्ह चेहरा-ए-ज़र्द की
है बहार पर ग़म-ए-ज़िंदगी कोई दिल-ख़िज़ाँ हो तो ले के आ

ये सफ़र है मंज़िल-ए-शौक़ का कोई हम-सफ़र कोई हम-रही
किसी दिल-शिकस्ता को साथ ले कोई सरगिराँ हो तो ले के आ

यूँही अपने आप से गुफ़्तुगू जो रही तो फिर न रहेगा तू
कोई हम-ख़याल तलाश कर कोई हम-ज़बाँ हो तो ले के आ

ज़रा ख़ुद से 'बाक़र'-ए-बे-नवा तू निकल कि तय हो मोआ'मला
इन्हें मिल ये लोग हैं अहल-ए-दिल ग़म-ए-राएगाँ हो तो ले के आ