है ध्यान जो अपना कहीं ऐ माह-जबीं और
जाना है कहीं और तो जाता हूँ कहीं और
जब तू ही करे दुश्मनी हम से तो ग़ज़ब है
तेरे तो सिवा अपना कोई दोस्त नहीं और
मैं हश्र को क्या रोऊँ कि उठ जाते ही तेरे
बरपा हुई इक मुझ पे क़यामत तो यहीं और
व'अदा तो तिरे आने का है सच ही व-लेकिन
बाज़ू के फड़कने से हुआ दिल को यक़ीं और
आख़िर तू कहाँ कूचा तिरा और कहाँ हम
कर लेवें यहाँ बैठ के इक आह-ए-हज़ीं और
था रू-ए-ज़मीं तंग ज़ि-बस हम ने निकाली
रहने के लिए शेर के आलम में ज़मीं और
नाम अपना लिखावे तो लिखा दिल पे तू मेरे
इस नाम को बेहतर नहीं इस से तो नगीं और
अबरू की तो थी चीन मिरे दिल पे ग़ज़ब पर
मिज़्गाँ से नुमूदार हुए ख़ंजर-ए-कीं और
निकले तो उसी कूचा से ये गुम-शुदा निकले
ढूँढे है 'हसन' दिल को तो फिर ढूँड वहीं और
ग़ज़ल
है ध्यान जो अपना कहीं ऐ माह-जबीं और
मीर हसन