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है धूप-छाँव की मानिंद ज़िंदगी मेरी | शाही शायरी
hai dhup-chhanw ki manind zindagi meri

ग़ज़ल

है धूप-छाँव की मानिंद ज़िंदगी मेरी

ख़लिश कलकत्वी

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है धूप-छाँव की मानिंद ज़िंदगी मेरी
सबात-ए-ग़म को नहीं आरज़ी ख़ुशी मेरी

उसी को अब मिरी हर बात ज़हर लगती है
कभी पसंद न थी जिस को ख़ामुशी मेरी

तिरी नज़र का सहारा बड़ा सहारा था
जहाँ में कर न सका कोई हमसरी मेरी

कभी गुनाह कभी हसरत-ए-गुनाह का ग़म
तमाम कर्ब-ए-मुसलसल है ज़िंदगी मेरी

मैं दिल का हाल उसी को सुनाता रहता हूँ
छुपी न जिस से कोई बात अन-कही मेरी

मैं मिस्ल-ए-किरमक शब-ताब जलता रहता हूँ
किसी के काम तो आएगी रौशनी मेरी

जो मेरे ख़दशा-ए-फ़र्दा पे ख़ंदा-ज़न हैं 'ख़लिश'
मिरी दुआ है मिले उन को आ गई मेरी