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है बे-असर ऐसी ही जो अपनी कशिश-ए-दिल | शाही शायरी
hai be-asar aisi hi jo apni kashish-e-dil

ग़ज़ल

है बे-असर ऐसी ही जो अपनी कशिश-ए-दिल

क़ाएम चाँदपुरी

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है बे-असर ऐसी ही जो अपनी कशिश-ए-दिल
जी ले ही के छोड़ेगी ये इक दिन ख़लिश-ए-दिल

था मू मुझे आमद में कोई उस की कि नागाह
ले जाए न घर से कहीं बाहर तपिश-ए-दिल

ज़हराब ओ हलाहिल से जो कुछ काम न निकला
दे कर के मैं की ख़ून-ए-जिगर परवरिश-ए-दिल

किस तरह कोई गुज़रे तिरी रह से कि प्यारे
हर गाम पे इस कूचे में है चपक़लिश-ए-दिल

क्या नक़्श कि ख़ातिर से हुए मुझ को मगर एक
हर नक़्श तिरा आठ पहर मुंतक़िश-ए-दिल

हाथों से दिल ओ दीदा के आया हूँ निपट तंग
आँखों को रोऊँ या मैं करूँ सरज़निश-ए-दिल

दीजो न इसे उस बुत-ए-बेबाक को 'क़ाएम'
ज़िन्हार कि नाज़ुक है निहायत तपिश-ए-दिल