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है अगरचे शहर में अपनी शनासाई बहुत | शाही शायरी
hai agarche shahr mein apni shanasai bahut

ग़ज़ल

है अगरचे शहर में अपनी शनासाई बहुत

कलीम उस्मानी

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है अगरचे शहर में अपनी शनासाई बहुत
फिर भी रहता है हमें एहसास-ए-तन्हाई बहुत

अब ये सोचा है कि अपनी ज़ात में सिमटे रहें
हम ने कर के देख ली सब से शनासाई बहुत

मुँह छुपा कर आस्तीं में देर तक रोते रहे
रात ढलती चाँदनी में उस की याद आई बहुत

क़तरा क़तरा अश्क-ए-ग़म आँखों से आख़िर बह गए
हम ने पलकों की उन्हें ज़ंजीर पहनाई बहुत

अपना साया भी जुदा लगता है अपनी ज़ात से
हम ने उस से दिल लगाने की सज़ा पाई बहुत

अब तो सैल-ए-दर्द थम जाए सकूँ दिल को मिले
ज़ख़्म-ए-दिल में आ चुकी है अब तो गहराई बहुत

शाम के सायों की सूरत फैलते जाते हैं हम
लग रही तंग हम को घर की अँगनाई बहुत

आइना बन के वो सूरत सामने जब आ गई
अक्स अपना देख कर मुझ को हँसी आई बहुत

वो सहर तारीकियों में आज भी रू-पोश है
जिस के ग़म में खो चुकी आँखों की बीनाई बहुत

मैं तो झोंका था असीर-ए-दाम क्या होता 'कलीम'
उस ने ज़ुल्फ़ों की मुझे ज़ंजीर पहनाई बहुत