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है आरज़ू कि और तो क्या ख़ुद ख़ुदा न हो | शाही शायरी
hai aarzu ki aur to kya KHud KHuda na ho

ग़ज़ल

है आरज़ू कि और तो क्या ख़ुद ख़ुदा न हो

मंज़ूर आरिफ़

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है आरज़ू कि और तो क्या ख़ुद ख़ुदा न हो
जब वो हो मेरे पास कोई दूसरा न हो

दीवार से कही थी जो उस तक पहुँच गई
इस बात पर ही मुझ से कहीं वो ख़फ़ा न हो

आहट भी कोई पा न सके घर से यूँ निकल
हर सम्त देख-भाल कोई देखता न हो

साया भी साथ ले के न जा कू-ए-यार में
हम-ज़ाद भी सफ़र में कहीं रूनुमा न हो

वो राह कर तलाश कि जो संगलाख़ हो
ढूँडे कोई तो तेरा कहीं नक़्श-ए-पा न हो

मुमकिन कहाँ कि आख़िर-ए-शब दर पे हो कोई
दस्तक सी हो रही है जो बाहर हवा न हो