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है आईने के मुक़ाबिल जो हू-ब-हू क्या है | शाही शायरी
hai aaine ke muqabil jo hu-ba-hu kya hai

ग़ज़ल

है आईने के मुक़ाबिल जो हू-ब-हू क्या है

अशरफ़ अली अशरफ़

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है आईने के मुक़ाबिल जो हू-ब-हू क्या है
ये मेरा रूप नहीं है तो जल्वा-रू क्या है

मिरे बदन की रगों में शराब की सूरत
जो सर पटकता गुज़रता है जू-ब-जू क्या है

मुनाफ़रत के ख़सारे में ख़ुश-ख़िराम रहे
सरिश्त-ए-आदम-ए-ख़ाकी में ख़ू-ब-ख़ू क्या है

मगन है और किसी सोच में मिरा विज्दान
मैं अपने आप से मख़्फ़ी हुआ हूँ तू क्या है

हतक है बादा-कशों की बढ़ाएँ दस्त-ए-शराब
नज़र से उठ नहीं पाए तो फिर सुबू क्या है

हमें तो कोई तफ़र्रुक़ नज़र नहीं आता
सराब-ए-मेहर-ए-तमन्ना या माह-रू क्या है

तुम्हारा नाम है 'अशरफ़' सुख़न-तराज़ मगर
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है