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है आईना-ख़ाने में तिरा ज़ौक़-फ़ज़ा रक़्स | शाही शायरी
hai aaina-KHane mein tera zauq-faza raqs

ग़ज़ल

है आईना-ख़ाने में तिरा ज़ौक़-फ़ज़ा रक़्स

सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम

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है आईना-ख़ाने में तिरा ज़ौक़-फ़ज़ा रक़्स
करते हैं बहुत से तिरे हम-शक्ल जुदा रक़्स

बे-ज़ख़्म सदा देने लगे साज़ अजब क्या
गर करने लगें ख़ुद-बख़ुद आलात-ए-ग़िना रक़्स

हो गर न तिरी बाग़ में आने की तवक़्क़ो'
क्यूँ सर्व को तालीम करे बाद-ए-सबा रक़्स

वाँ क़ाफ़िला मंज़िल पे भी पहुँचा मगर अब तक
हम करते हैं सहरा में बा-आवाज़-ए-दरा रक़्स

है वादी-ए-ग़म वो कि गर आ जाएँ इधर ख़िज़्र
राशे से करे हाथ में हज़रत के असा रक़्स

माक़ूल सही वज्द का हीला मगर ऐ शैख़
अच्छा नहीं बा-ईं-हमा-तमकीन-ओ-हया रक़्स

यूँ ही तो ख़राबात में आओ कि सरासर
या बादा है या बंग है या नग़्मा है या रक़्स

याँ तुम को ये आवाज़-ए-दफ़-ओ-चंग मुबारक
बे-कश्मकश-ए-ख़िर्क़ा-ओ-तस्बीह-ओ-रिदा रक़्स

'नाज़िम' तिरे अशआ'र में हैं मा'नी-ए-तौहीद
इस ज़मज़मे पर करते हैं मर्दान-ए-ख़ुदा रक़्स