हद-ए-उफ़ुक़ पर सारा कुछ वीरान उभरता आता है
मंज़र के खो जाने का इम्कान उभरता आता है
पस-मंज़र में 'फ़ीड' हुए जाते हैं इंसानी किरदार
फ़ोकस में रफ़्ता रफ़्ता शैतान उभरता आता है
पीछे पीछे डूब रही हैं उम्र-ए-रवाँ की मंफ़अतें
आगे आगे इक भारी नुक़सान उभरता आता है
जैसे मैं दबता जाता हूँ उन आँखों के बोझ तले
दिल पर दो अश्कों का इक एहसान उभरता आता है
एक तशन्नुज इक हिचकी फिर इक नीली ज़हरीली क़य
क्या कुछ लिख देने जैसा हैजान उभरता आता है
'साज़' मिरी जानिब उठती है रात गए अंगुश्त-ए-''अलस्त''
रूह में इक भूला-बिसरा पैमान उभरता आता है
ग़ज़ल
हद-ए-उफ़ुक़ पर सारा कुछ वीरान उभरता आता है
अब्दुल अहद साज़