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हद-ए-इम्काँ से आगे अपनी हैरानी नहीं जाती | शाही शायरी
had-e-imkan se aage apni hairani nahin jati

ग़ज़ल

हद-ए-इम्काँ से आगे अपनी हैरानी नहीं जाती

मुनव्वर लखनवी

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हद-ए-इम्काँ से आगे अपनी हैरानी नहीं जाती
नहीं जाती नज़र की पा-ब-जौलानी नहीं जाती

लब-ए-ख़ामोश साहिल से सुकूँ का दर्स मिलता है
मगर अमवाज-ए-दरिया की परेशानी नहीं जाती

जहाँ पहले कभी सब गोश-बर-आवाज़ रहते थे
वहाँ भी अब मिरी आवाज़ पहचानी नहीं जाती

हक़ीक़त कुछ तो अपनी आबरू का पास हो तुझ को
हज़ारों पैरहन हैं फिर भी उर्यानी नहीं जाती

नहीं तअ'ज़ीम के लाएक़ नहीं तकरीम के क़ाबिल
वो दर जिस की तरफ़ ख़ुद खिंच के पेशानी नहीं जाती

सुकूँ होता तो है फिर भी सुकूँ हासिल नहीं होता
कि जाने की तरह अपनी परेशानी नहीं जाती