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हब्स के आलम में महबस की फ़ज़ा भी कम नहीं | शाही शायरी
habs ke aalam mein mahbas ki faza bhi kam nahin

ग़ज़ल

हब्स के आलम में महबस की फ़ज़ा भी कम नहीं

रईस अमरोहवी

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हब्स के आलम में महबस की फ़ज़ा भी कम नहीं
रौज़न-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँ की हवा भी कम नहीं

शोरिश-ए-ज़ंजीर-ए-पा पर हैं अगर पाबंदियाँ
हल्के हल्के जुम्बिश-ए-ज़ंजीर-ए-पा भी कम नहीं

गर सर-ए-मक़्तल न हो ज़िक्र-ए-बुताँ का हौसला
हुजरा-ए-तारीक में याद-ए-ख़ुदा भी कम नहीं

रहरव-ए-शब क्यूँ चराग़-ए-मह से दरयूज़ा-गरी
रात अँधेरी हो तो जुगनू की ज़िया भी कम नहीं

लाख मोहकम हो हिसार-ए-मरहबी-ओ-अंतरी
ग़ाज़ियों का बाज़ू-ए-ख़ैबर-कुशा भी कम नहीं

अहद-ए-गुल से साज़िश-ए-बाद-ए-ख़िज़ाँ भी कम न थी
शाख़-ए-गुल से सोज़िश-ए-बर्क़-ए-बला भी कम नहीं

क्या हुआ गर वाइ'ज़-ओ-मुल्ला के दिल हैं बे-चराग़
गोशा-ए-मस्जिद में नन्हा सा दिया भी कम नहीं

लज़्ज़त-ए-बादा है जाँ-परवर मगर ऐ अहल-ए-ज़ौक़
ज़हर-ए-अश्क-ओ-क़तरा-ए-ख़ूँ का मज़ा भी कम नहीं