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हब्स-ए-दरूँ पे जिस्म-ए-गिराँ-बार संग था | शाही शायरी
habs-e-darun pe jism-e-giran-bar sang tha

ग़ज़ल

हब्स-ए-दरूँ पे जिस्म-ए-गिराँ-बार संग था

अकरम नक़्क़ाश

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हब्स-ए-दरूँ पे जिस्म-ए-गिराँ-बार संग था
वहशत पे मेरी अरसा-ए-आफ़ाक़ तंग था

कुछ दूर तक सहाब-ए-रिफ़ाक़त रहा रफ़ीक़
फिर एहतमाम-ए-बारिश-ए-तीर-ओ-तफ़ंग था

सहमी हुई फ़ज़ा-ए-ग़ज़ालाँ के रू-ब-रू
जंगल था क़हक़हे थे ख़ुदा था मैं दंग था

अब शहर-ए-जुस्तुजू में तिरे बाद कुछ नहीं
आबादी-ए-बदन में जो दिल था मलंग था

जी ये करे है आज कि तन्हा जिएँ मरें
कब मेरे इज़्तिराब का ये रंग-ढंग था

हर शाम मुज़्महिल सी सवेरा बुझा बुझा
तुझ से परे जो देखा यही एक रंग था