EN اردو
हाथ सीने पे मिरे रख के किधर देखते हो | शाही शायरी
hath sine pe mere rakh ke kidhar dekhte ho

ग़ज़ल

हाथ सीने पे मिरे रख के किधर देखते हो

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

;

हाथ सीने पे मिरे रख के किधर देखते हो
इक नज़र दिल से इधर देख लो गर देखते हो

है दम-ए-बाज़-पसीं देख लो गर देखते हो
आईना मुँह पे मिरे रख के किधर देखते हो

ना-तवानी का मिरी मुझ से न पूछो अहवाल
हो मुझे देखते या अपनी कमर देखते हो

पर-ए-परवाना पड़े हैं शजर-ए-शम्अ के गिर्द
बर्ग-रेज़ी-ए-मोहब्बत का समर देखते हो

बेद-ए-मजनूँ को हो जब देखते ऐ अहल-ए-नज़र
किसी मजनूँ को भी आशुफ़्ता-बसर देखते हो

शौक़-ए-दीदार मिरी नाश पे आ कर बोला
किस की हो देखते राह और किधर देखते हो

लज़्ज़त-ए-नावक-ए-ग़म 'ज़ौक़' से हो पूछते क्या
लब पड़े चाटते हैं ज़ख़्म-ए-जिगर देखते हो