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हाथ से कुछ न तिरे ऐ मह-ए-कनआँ होगा | शाही शायरी
hath se kuchh na tere ai mah-e-kanan hoga

ग़ज़ल

हाथ से कुछ न तिरे ऐ मह-ए-कनआँ होगा

गोया फ़क़ीर मोहम्मद

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हाथ से कुछ न तिरे ऐ मह-ए-कनआँ होगा
हाथ जो होगा तो मिरी मौत का सामाँ होगा

साक़िया हिज्र में मय-ख़ाना बयाबाँ होगा
दौर-ए-साग़र भी रम-ए-चश्म-ए-ग़ज़ालाँ होगा

ऐ जुनूँ फिर मुझे ख़ुश आने लगी उर्यानी
अब न दामन ही रहेगा न गरेबाँ होगा

फिर चलेंगे तिरा क़द देख के गुलज़ारों में
फिर हर इक सर्व-ओ-समन सर्व-ए-चराग़ाँ होगा

घर में दिल फिर मिरा घबराने लगा आप से आप
ऐ जुनूँ फिर ये मकाँ ख़ाना-ए-ज़िंदाँ होगा

फिर ख़ुश आती है मिरे दिल को शब-ए-माह की सैर
इश्क़ फिर चाँद से मुखड़े का दो-चंदाँ होगा

इन दिनों फिर तुझे 'गोया' जो है चुपकी सी लगी
फिर इरादा तरफ़-ए-मुल्क-ए-ख़मोशाँ होगा