हाथ फिर बढ़ रहा है सू-ए-जाम
ज़िंदगी की उदासियों को सलाम
कौन जाने ये किस की ज़ुल्फ़ों में
हो गए हैं असीर-ए-सुब्ह-ओ-शाम
मैं समझता हूँ फिर बहार आई
कोई लेता है जब ख़िज़ाँ का नाम
कोई अहल-ए-जुनूँ को समझा दे
आगही तो नहीं है कोई दाम
साथ दो-गाम तो चलो वर्ना
भूल जाएगी गर्दिश-ए-अय्याम
ग़ज़ल
हाथ फिर बढ़ रहा है सू-ए-जाम
जावेद कमाल रामपुरी