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हाथ में माहताब हो जैसे | शाही शायरी
hath mein mahtab ho jaise

ग़ज़ल

हाथ में माहताब हो जैसे

आबिद वदूद

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हाथ में माहताब हो जैसे
खुली आँखों में ख़्वाब हो जैसे

मेरे हम-साए में जो रहता है
मुझ सा ख़ाना-ख़राब हो जैसे

चाँद निकला तो इस क़रीने से
इक हसीं बे-हिजाब हो जैसे

हम-सफ़र ढूँडने को निकला हूँ
मौसम-ए-इंतिख़ाब हो जैसे

यूँ गुनाहों की याद आती है
आज यौम-ए-हिसाब हो जैसे

आँख मुद्दत से तर नहीं 'आबिद'
ख़ुश्क अपना चनाब हो जैसे