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हाथ में जब तक क़लम था तजरिबे लिखते रहे | शाही शायरी
hath mein jab tak qalam tha tajribe likhte rahe

ग़ज़ल

हाथ में जब तक क़लम था तजरिबे लिखते रहे

इशरत क़ादरी

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हाथ में जब तक क़लम था तजरिबे लिखते रहे
हम ज़मीं पर आसमाँ के मशवरे लिखते रहे

उम्र कितनी कट गई हिजरत में सोचा ही नहीं
चेहरे की सारी लकीरें आइने लिखते रहे

मौसमों की दस्तकें चीख़ों में दब कर रह गईं
गीत की फ़रमाइशें थीं मरसिए लिखते रहे

तुम न पढ़ना वो सफ़र-नामा जो नोक-ए-ख़ार पर
कू-ब-कू सहरा-ब-सहरा आबले लिखते रहे

हादसे जिन पर मोअर्रिख़ की ज़बाँ खुलती नहीं
शहर की दीवार पर हम ख़ून से लिखते रहे

कार-नामा और क्या करते ये नक़्क़ादान-ए-अस्र
नोक-ए-ख़ंजर से ग़ज़ल पर हाशिए लिखते रहे

कैफ़ियत शाख़-ए-निहाल-ए-ग़म की 'इशरत' सुब्ह-ओ-शाम
आते-जाते मौसमों के क़ाफ़िले लिखते रहे