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हाथ लहराता रहा वो बैठ कर खिड़की के साथ | शाही शायरी
hath lahraata raha wo baiTh kar khiDki ke sath

ग़ज़ल

हाथ लहराता रहा वो बैठ कर खिड़की के साथ

इफ़्तिख़ार नसीम

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हाथ लहराता रहा वो बैठ कर खिड़की के साथ
मैं अकेला दूर तक भागा गया गाड़ी के साथ

हो गया है ये मकाँ ख़ाली सदाओं से मगर
ज़ेहन अब तक गूँजता है रेल की सीटी के साथ

मुद्दतें जिस को लगी थीं मेरे पास आते हुए
हो गया मुझ से जुदा वो किस क़दर तेज़ी के साथ

कोई बादल मेरे तपते जिस्म पर बरसा नहीं
जल रहा हूँ जाने कब से जिस्म की गर्मी के साथ

नींद कतरा के गुज़र जाती है आँखों से 'नसीम'
जागता रहता हूँ अब मैं शब की वीरानी के साथ