हाथ जब मौसम के गीले हो गए हैं
ज़ख़्म दिल के और गहरे हो गए हैं
बाँटते थे जो बहार-ए-ज़िंदगानी
बंद अब वो भी दरीचे हो गए
डूब जाएगा हमारे साथ वो भी
ये जो सोचा हाथ ढीले हो गए हैं
लाज रखनी पड़ गई है दोस्तों की
हम भरी महफ़िल में झूटे हो गए हैं
ऐ ग़म-ए-माज़ी तुझे मैं नज़्र क्या दूँ
ख़ुश्क आँखों के कटोरे हो गए हैं
अब मदद ख़ार-ए-बयाबाँ हैं करेंगे
सद्द-ए-रह पैरों के छाले हो गए हैं
सो सकेगा वो भी 'अख़्तर' चैन से अब
हाथ बेटी के जो पीले हो गए हैं
ग़ज़ल
हाथ जब मौसम के गीले हो गए हैं
अख़तर शाहजहाँपुरी