हाथ आता तो नहीं कुछ प तक़ाज़ा कर आएँ
और इक बार गली का तिरी फेरा कर आएँ
नींद के वास्ते वैसे भी ज़रूरी है थकन
प्यास भड़काएँ किसी साए का पीछा कर आएँ
लुत्फ़ देती है मसीहाई पर इतना भी नहीं
जोश में अपने ही बीमार को अच्छा कर आएँ
लोग महफ़िल में बुलाते हुए कतराते थे
अब नहीं धड़का ये ख़ुद से कि कहाँ क्या कर आएँ
काश मिल जाए कहीं फिर वही आईना-सिफ़त
नक़्श बे-रब्त बहुत हैं इन्हें चेहरा कर आएँ
कितनी आसानी से हम उस को भुला सकते हैं
बस किसी तरह उसे दूसरों जैसा कर आएँ
ये भी मुमकिन है कि हम हार से बचने के लिए
अपने दुश्मन के किसी वार में हिस्सा कर आएँ
बात माज़ी को अलग रख के भी हो सकती है
अब जो हालात हैं उन पर कभी चर्चा कर आएँ
ये बता कर कि ये रौनक़ तो ज़रा देर की है
साहिब-ए-बज़्म के हैजान को ठंडा कर आएँ
क्या वजूद उस का अगर कोई तवज्जोह ही न दे
हम कि जब चाहें उसे भीड़ का हिस्सा कर आएँ
ग़ज़ल
हाथ आता तो नहीं कुछ प तक़ाज़ा कर आएँ
शारिक़ कैफ़ी