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हासिल-ए-ग़म यही समझते हैं | शाही शायरी
hasil-e-gham yahi samajhte hain

ग़ज़ल

हासिल-ए-ग़म यही समझते हैं

अनवर साबरी

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हासिल-ए-ग़म यही समझते हैं
मौत को ज़िंदगी समझते हैं

जिस को तेरे अलम से निस्बत है
हम उसी को ख़ुशी समझते हैं

तुम सितम में कमी न फ़रमाओ
हम इसे दुश्मनी समझते हैं

हम चराग़ों में चाँद तारों के
आप की रौशनी समझते हैं

शैख़ जी हैं फ़रिश्तों के उस्ताद
आप उन्हें आदमी समझते हैं

हुस्न-ए-मौज़ूँ के ज़िक्र को 'अनवर'
मक़्सद-ए-शाइरी समझते हैं