हासिल-ए-ग़म यही समझते हैं
मौत को ज़िंदगी समझते हैं
जिस को तेरे अलम से निस्बत है
हम उसी को ख़ुशी समझते हैं
तुम सितम में कमी न फ़रमाओ
हम इसे दुश्मनी समझते हैं
हम चराग़ों में चाँद तारों के
आप की रौशनी समझते हैं
शैख़ जी हैं फ़रिश्तों के उस्ताद
आप उन्हें आदमी समझते हैं
हुस्न-ए-मौज़ूँ के ज़िक्र को 'अनवर'
मक़्सद-ए-शाइरी समझते हैं
ग़ज़ल
हासिल-ए-ग़म यही समझते हैं
अनवर साबरी