हार कर बाज़ी फिर इक तदबीर हो जाऊँगा मैं
तुम समझते हो यूँ ही तस्ख़ीर हो जाऊँगा मैं
इश्क़ में इस के सवा मैं कुछ नहीं कर पाऊँगा
हू-ब-हू जानाँ तिरी तस्वीर हो जाऊँगा मैं
साथ छूटेगा नहीं अपना सफ़र में उम्र के
रहगुज़र तू और तिरा रह-गीर हो जाऊँगा मैं
आयतें मंसूब हैं तुझ से रुमूज़-ए-इश्क़ की
और इन्ही आयात की तफ़्सीर हो जाऊँगा मैं
ग़म उठाता हूँ ग़ज़ल कहता हूँ जीता रहता हूँ
लोग कहते हैं कि इक दिन 'मीर' हो जाऊँगा मैं

ग़ज़ल
हार कर बाज़ी फिर इक तदबीर हो जाऊँगा मैं
हसनैन आक़िब