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हार कर बाज़ी फिर इक तदबीर हो जाऊँगा मैं | शाही शायरी
haar kar bazi phir ek tadbir ho jaunga main

ग़ज़ल

हार कर बाज़ी फिर इक तदबीर हो जाऊँगा मैं

हसनैन आक़िब

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हार कर बाज़ी फिर इक तदबीर हो जाऊँगा मैं
तुम समझते हो यूँ ही तस्ख़ीर हो जाऊँगा मैं

इश्क़ में इस के सवा मैं कुछ नहीं कर पाऊँगा
हू-ब-हू जानाँ तिरी तस्वीर हो जाऊँगा मैं

साथ छूटेगा नहीं अपना सफ़र में उम्र के
रहगुज़र तू और तिरा रह-गीर हो जाऊँगा मैं

आयतें मंसूब हैं तुझ से रुमूज़-ए-इश्क़ की
और इन्ही आयात की तफ़्सीर हो जाऊँगा मैं

ग़म उठाता हूँ ग़ज़ल कहता हूँ जीता रहता हूँ
लोग कहते हैं कि इक दिन 'मीर' हो जाऊँगा मैं