हाँ मियाँ सच है तुम्हारी तो बला ही जाने
जो गुज़रती है मिरे दिल पे ख़ुदा ही जाने
दिल से निकले कहीं पा-बोसी-ए-क़ातिल की हवस
काश वो ख़ूँ को मिरे रंग-ए-हिना ही जाने
दिल की वाशुद पे अबस आह ने खींची तकलीफ़
खोलने उक़्दे तो ग़ुंचों के सबा ही जाने
रोज़-ओ-शब नज़'अ में है आशिक़-ए-चश्म-ओ-लब-ए-यार
न तो जीना ही वो समझे न फ़ना ही जाने
हम तो नित दूर से ख़म्याज़ा-कश-ए-हसरत हैं
लज़्ज़त-ए-बोस-ओ-कनार उस की हया ही जाने
तेरे बीमार को क्या होवे शिफ़ा जिस के तबीब
न तो कुछ दर्द को समझे न दवा ही जाने
पूछ इस दिल से जो है काट तिरे अबरू का
जौहर-ए-बुर्रश-ए-शमशीर सिपाही जाने
अपनी मर्ज़ी तो ये है बंदा-ए-बुत हो रहिए
आगे मर्ज़ी है ख़ुदा की सो ख़ुदा ही जाने
तौर पर अपने सुख़न कौन बुरा कहता है
पर ये अंदाज़ जो पूछो तो 'बक़ा' ही जाने
ग़ज़ल
हाँ मियाँ सच है तुम्हारी तो बला ही जाने
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'