हालत-ए-हाल से बेगाना बना रक्खा है
ख़ुद को माज़ी का निहाँ-ख़ाना बना रक्खा है
ख़ौफ़-ए-दोज़ख़ ने ही ईजाद किया है सज्दा
डर ने इंसान को दीवाना बना रक्खा है
मिम्बर-ए-इश्क़ से तक़रीर की ख़्वाहिश है हमें
दिल को इस वास्ते मौलाना बना रक्खा है
मातम-ए-शौक़ बपा करते हैं हर शाम यहाँ
जिस्म को हम ने अज़ाँ-ख़ाना बना रक्खा है
वक़्त-ए-रुख़्सत है मिरे चाहने वालों ने भी अब
साँस को वक़्त का पैमाना बना रक्खा है
जानते हैं वो परिंदा है नहीं ठहरेगा
हम ने उस दिल को मगर दाना बना रक्खा है
ग़ज़ल
हालत-ए-हाल से बेगाना बना रक्खा है
अब्बास क़मर