हालात से फ़रार की क्या जुस्तुजू करें
जुज़ ये कि शहर-ए-दार में जश्न-ए-सुबू करें
आओ इलाज-ए-तल्ख़ी-ए-काम-ओ-गुलू करें
कुछ देर शुग़्ल-ए-जाम रहे गुफ़्तुगू करें
अपने करम से क्या वो हमें सुर्ख़-रू करें
हम ऐसे बद-मिज़ाज कि दिल को लहू करें
पहचान भी न पाएँगे आप अपनी शक्ल को
टूटा है दिल का आईना क्या रू-ब-रू करें
कुछ फ़ैसला न हो सका अब की बहार में
दामन को तार तार करें या रफ़ू करें
दस्त-ए-जुनूँ तो बन चुका मश्शाता-ए-चमन
पा-ए-जुनूँ से दश्त को अब सुर्ख़-रू करें
दर मय-कदे का बंद हरम का चराग़ गुल
ख़ून-ए-जिगर पिएँ कि लहू से वज़ू करें
क्या दिन थे दिल की बातों से मिलता था जब सुकूँ
पत्थर से किस उमीद पे अब गुफ़्तुगू करें
वो मोतियों से करते हैं मुँह शाइरों का बंद
ऐसे में क्या हम अपने को बे-आबरू करें
किस को दिमाग़-ए-फ़िक्र किसे फ़ुर्सत-ए-सुख़न
फिर किस लिए ज़माने को अपना उदू करें
'वामिक़' से इल्तिफ़ात का मतलब यही तो है
कुछ देर शेर-वेर सुनें हा-ओ-हू करें
ग़ज़ल
हालात से फ़रार की क्या जुस्तुजू करें
वामिक़ जौनपुरी