हाल में अपने मगन हो फ़िक्र-ए-आइंदा न हो
ये उसी इंसान से मुमकिन है जो ज़िंदा न हो
कम से कम हर्फ़-ए-तमन्ना की सज़ा इतनी तो दे
जुरअत-ए-जुर्म-ए-सुख़न भी मुझ को आइंदा न हो
बे-गुनाही जुर्म था अपना सो इस कोशिश में हूँ
सुर्ख़-रू मैं भी रहूँ क़ातिल भी शर्मिंदा न हो
ज़ुल्मतों की मद्ह-ख़्वानी और इस अंदाज़ से
ये किसी पर्वर्दा-ए-शब का नुमाइंदा न हो
मैं बहर-सूरत तिरा कर्ब-ए-तग़ाफ़ुल सह गया
अब मुझे इस का सिला दे सिर्फ़ शर्मिंदा न हो
ज़िंदगी तिश्ना भी है बे-रंग भी लेकिन 'सुरूर'
जब तलक चेहरा फ़रोग़-ए-मय से ताबिंदा न हो

ग़ज़ल
हाल में अपने मगन हो फ़िक्र-ए-आइंदा न हो
सुरूर बाराबंकवी