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हाल में अपने मगन हो फ़िक्र-ए-आइंदा न हो | शाही शायरी
haal mein apne magan ho fikr-e-ainda na ho

ग़ज़ल

हाल में अपने मगन हो फ़िक्र-ए-आइंदा न हो

सुरूर बाराबंकवी

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हाल में अपने मगन हो फ़िक्र-ए-आइंदा न हो
ये उसी इंसान से मुमकिन है जो ज़िंदा न हो

कम से कम हर्फ़-ए-तमन्ना की सज़ा इतनी तो दे
जुरअत-ए-जुर्म-ए-सुख़न भी मुझ को आइंदा न हो

बे-गुनाही जुर्म था अपना सो इस कोशिश में हूँ
सुर्ख़-रू मैं भी रहूँ क़ातिल भी शर्मिंदा न हो

ज़ुल्मतों की मद्ह-ख़्वानी और इस अंदाज़ से
ये किसी पर्वर्दा-ए-शब का नुमाइंदा न हो

मैं बहर-सूरत तिरा कर्ब-ए-तग़ाफ़ुल सह गया
अब मुझे इस का सिला दे सिर्फ़ शर्मिंदा न हो

ज़िंदगी तिश्ना भी है बे-रंग भी लेकिन 'सुरूर'
जब तलक चेहरा फ़रोग़-ए-मय से ताबिंदा न हो