हाल खुलता नहीं जबीनों से
रंज उठाए हैं जिन क़रीनों से
रात आहिस्ता-गाम उतरी है
दर्द के माहताब ज़ीनों से
हम ने सोचा न उस ने जाना है
दिल भी होते हैं आबगीनों से
कौन लेगा शरार-ए-जाँ का हिसाब
दस्त-ए-इमरोज़ के दफ़ीनों से
तू ने मिज़्गाँ उठा के देखा भी
शहर ख़ाली न था मकीनों से
आश्ना आश्ना पयाम आए
अजनबी अजनबी ज़मीनों से
जी को आराम आ गया है 'अदा'
कभी तूफ़ाँ कभी सफ़ीनों से
ग़ज़ल
हाल खुलता नहीं जबीनों से
अदा जाफ़री