हाल-ए-मर्ग-ए-बे-कसी सुन कर असर कोई न हो
सच तो ये है आप सा भी बे-ख़बर कोई न हो
हाए दुश्मन देखें उन के उठते जौबन की बहार
हाए मैं कोई न हूँ मेरी नज़र कोई न हो
इस तमन्ना पर कटे मरते हैं मुश्ताक़ान-ए-क़त्ल
यार पर क़ुर्बान हम से पेशतर कोई न हो
वो क़यामत की घड़ी है तालिब-ए-दीदार पर
जब उठे पर्दा तो पर्दे के उधर कोई न हो
इश्क़ में बे-ताबियाँ होती हैं लेकिन ऐ 'हसन'
जिस क़दर बेचैन तुम हो उस क़दर कोई न हो
ग़ज़ल
हाल-ए-मर्ग-ए-बे-कसी सुन कर असर कोई न हो
हसन बरेलवी