हाए कैसी वो शाम होती है
दास्ताँ जब तमाम होती है
ये तो बातें हैं सिर्फ़ ज़ाहिद की
कहीं मय भी हराम होती है
शाम-ए-फ़ुर्क़त की उलझनें तौबा
किस ग़ज़ब की ये शाम होती है
इश्क़ में और क़रार क्या मअ'नी
ज़िंदगी तक हराम होती है
हो के आती है जब उधर से सबा
कितनी नाज़ुक-ख़िराम होती है
ये तसद्दुक़ है उन की ज़ुल्फ़ों का
मेरी हर सुब्ह शाम होती है
जब भी होती हैं जन्नतें तक़्सीम
हूर ज़ाहिद के नाम होती है
लम्हे आते हैं वो भी उल्फ़त में
जब ख़मोशी कलाम होती है
पीने वाला हो गर तो साक़ी की
हर नज़र दौर-ए-जाम होती है
हर अदा हम अदा-शनासों की
ज़िंदगी का पयाम होती है
वक़्त ठहरा हुआ सा है 'नौशाद'
न सहर और न शाम होती है
ग़ज़ल
हाए कैसी वो शाम होती है
नौशाद अली