हादसा होता रहा है मुझ में
बार-हा कोई मरा है मुझ में
मेरी मिट्टी को पता है सब कुछ
कौन कब कितना चला है मुझ में
ख़त्म होता ही नहीं मेरा सफ़र
कोई थक-हार गया है मुझ में
अपने अंदर मैं समेटूँ क्या क्या
सारा घर बिखरा पड़ा है मुझ में
कश्तियाँ डूब रही हैं 'आज़र'
एक तूफ़ान उठा है मुझ में
ग़ज़ल
हादसा होता रहा है मुझ में
बलवान सिंह आज़र