हादिसा ऐसा भी ज़ेर-ए-आसमाँ होना ही था
बर्ग-ए-गुल को ख़ाक शो'ले को धुआँ होना ही था
तल्ख़ जितनी हो हक़ीक़त को अयाँ होना ही था
ज़िंदगी को सात पर्दों में निहाँ होना ही था
जो न सुनना था वो अफ़्साना बयाँ होना ही था
या'नी अपनी कोशिशों को राएगाँ होना ही था
रेज़ा रेज़ा टूट कर बिखरे दर-ओ-दीवार-ए-दिल
लम्हा लम्हा ख़ाना-ए-जाँ का ज़ियाँ होना ही था
साअ'त-बे-मेहर मेरी ज़िंदगी को डस गई
लम्हा-ए-सफ़्फ़ाक को मुझ पर अयाँ होना ही था
वक़्त से पहले हवा ने कान में कुछ कह दिया
फ़स्ल-ए-गुल के आते ही दिल का ज़ियाँ होना ही था
जानता हूँ नाज़ फिर भी सब्र की ताक़त नहीं
बाग़-ए-दिल को एक दिन नज़्र-ए-ख़िज़ाँ होना ही था
ग़ज़ल
हादिसा ऐसा भी ज़ेर-ए-आसमाँ होना ही था
नाज़ क़ादरी